धुंध की वजह से
लालटेन के आसपास एक पीली आभा बनी हुई है| बाहर बहुत ठण्ड है लेकिन, मेरा कमरा गर्म है| दिव्या बीच-बीच में उठकर आग में लकड़ी डाल आती है, मैं पूछता हूँ, "तुम क्यों बार-बार उठ कर जाती
हो, थक जाओगी, अमन कहाँ गया?" वह अपने चश्मे पर जमे पानी की बूंदों
को साड़ी के पल्लू से साफ़ करती है, और गेट से बाहर
देखते हुए मुझसे कहती हैं, "अमन शायद बाहर रॉकी के साथ खेल
रहा है, राव साहब आते हैं तो बोलती हूँ, उसे बुला लाएंगे|" पिछले एक घंटे से हम दोनों राव
साहब का इंतजार कर रहे हैं| "ब्लैक कॉफ़ी बना कर लाऊँ, पीओगे", मेरे कानो को ढकते हुए दिव्या
बोली| "वह भी तुम्ही को बनाना होगा, अपनी सेहत का ख्याल रखो, अभी बहुत काम करने हैं तुम्हे| राव साहब से सब कुछ अकेले नहीं
संभलेगा| भक्तराज की हालत भी बहुत गंभीर
है....", “भक्त राज बड़े भी तो आपसे कितने
हैं, 12 साल छोटे हैं आप उनसे"
दिव्या मुझे बीच में काटते हुए बोली| "यही तो मैं तुमसे कह रहा हूँ, अब जब मेरे जाने का वक़्त आ गया
है, तो भक्तराज और कितने दिन
जिएंगे", खिड़की की तरफ मुंह करते हुए
मैंने कहा| खिड़की के उस पार देवदार पर एक
कौव्वा बैठा था| उसके पंख गीले थे, अपने पैरों के नीचे उसने कुछ
दबा रखा था| बार-बार चोंच मार कर उन्हें खा
रहा था, और बीच-बीच में इधर-उधर देख
लेता था| "मैं कॉफ़ी बनाने जा रही
हूँ", रजाई से मेरे कन्धों को ढकते
हुए दिव्या बोली| "आपके बाद मैं या तो मर जाउंगी, या फिर दिल्ली चली जाउंगी| आपके बिना मैं यहाँ एक दिन भी नहीं
रह सकती हूँ", बोलते हुए कमरे से निकल गई| जाते समय मैंने उसे देखा, घुटने का दर्द शायद फिर से बढ़
गया था, ठीक से चल नहीं पा रही थी| 'कितना तो समझाया करता था कि
नियमित रूप से योग किया करो, लेकिन इसको
बकलोली से फुर्सत मिले तब तो', मैं मन-ही-मन
सोचने लगा| वो भी क्या दिन थे जब हम भारत
के अलग-अलग खूबसूरत जगहों पर जाया करते थे, सुबह उठकर योग करते थे| मुझे आज भी याद है कैसे सुबह
चार बजे उठकर दिव्या मेरे लिए नाश्ता तैयार करती थी| और मैं मेहसाणा से 70 किलोमीटर दूर योग सिखने जाया
करता था| "इतना सब करने का लेकिन फायदा
क्या हुआ? इतनी मेहनत करके सीखो, फिर उसी चीज़ का विरोध करने
लगो", ख्याब में ही दिव्या मुझसे बोली| उसे मेरी इस आदत से हमेशा से
शिकायत रही है| पहले किसी चीज़ को सीख लो, फिर उसके खिलाफ़ हो जाओ| "कितनी बार मना किया है, पुरानी यादों को मत कूदेरा
करो", टेबल पर कॉफ़ी रखते हुए दिव्या
बोली| "कहाँ कुछ सोच रहा हूँ", 'पता नहीं इसे कैसे पता चल जाता
है कि मैं अतीत की राख को कुदेर रहा हूँ' सोचते हुए मैं बोला| "अगर सोच नहीं रहे हो, तो फिर आँखों में आंसू कैसे
है", पीठ को सहारा देकर मुझे बिठाते
हुए बोली| "अब बोलो क्या सोच कर रो रहे
थे", कॉफ़ी का मग पकड़ाते हुए बोली| "अब तुम्हारे हाथ भी कांपने लगे
हैं", कांपते हुए कप को देख कर बोली| मैंने भी कप पर नज़र डाली, सच में हाथ कापं रहे थे| "ठण्ड से कांप रहे होंगे", मैंने उससे कहा| "हाँ कमरे में ठण्ड जो बहुत
है", अपनी कॉफ़ी का मग लेकर मेरे पैताने
बैठते हुए बोली|
खिड़की से आने
वाली रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी| मैंने देखा एक दो को छोड़ कर
उसके सारे बाल सफ़ेद हो गए थे| "मुझे घूरना बंद
करो और बताओ कि क्या सोच कर रो रहे थे?", कॉफ़ी मग को नाक के पास ले जाते
हुए बोली| "यही याद कर रहा था कि पहली बार जब
आईने में तुम्हे एक सफ़ेद बाल दिखा था तो तुम कैसे रोने लगी थी", बोलते-बोलते मुझे हंसी आ गई| "25 वर्ष की आयु में किसी की बाल
सफ़ेद होने लगे तो वो रोएगा नहीं, इसमें हंसने की
क्या बात है| चलो मेरे तो सफ़ेद हैं, लेकिन अपना न देखो...गंजा होने
से तो बेहतर है सफ़ेद होना|", गुस्से से उसका नाक लाल हो गया
था| -इसकी गुस्सा करने की बीमारी
मरते दम तक भी नहीं गई| मैं खिड़की से बाहर देखने लगा|
वह कौव्वा अब भी
वहीं बैठा था, लेकिन उसके पैरों के नीचे अब
कुछ भी नहीं था| अपने चोंच से पंखों को साफ़ कर
रहा था| "तब मैं नादान थी, इसलिए रोई थी, अब मुझे अपने सफ़ेद बालों से
प्रेम हैं| पहले मैं बुढ़ापे से डरती थी, लेकिन अब जानती हूँ, बुढ़ापा जीवन का फूल है| जो लोग ठीक से बूढ़े नहीं हो
पाते हैं, वो बाँझ ही रह जाते हैं, उनका जीवन एक ठूंठ पेड़ जैसा हो
जाता है-न फूल न पत्ते", वो भी मेरी तरह
खिड़की के बाहर ही देख रही थी| "और हाँ, मुझे तुम्हारा गंजापन भी पसंद
है", कॉफ़ी के खाली कप को बेड के
सामने पड़े तिपाये पर झुककर रखते हुए बोली| उसका गुस्सा शांत हो चुका था| मैंने देखा सफ़ेद बालों और साड़ी
में वह सच में ही बहुत सुंदर लग रही थी, इतनी सुंदर जितनी वह पहले कभी
नहीं लगी थी| "साड़ी जंचती है तुम पर", अपना खाली कप बढ़ाते हुए मैंने
कहा| "हाँ, मैं भी यही सोचती हूँ, लेकिन याद है भारतीय कपड़ों से
मुझे कितनी चिढ़ थी| मैं कितना गुस्सा करती थी जब
तुम मुझे इंडियन पहनने को कहते थे", मेरे कप को भी तिपाये पर रखते
हुए बोली| "यह सब गार्गी कॉलेज की विकृत
शिक्षा-दीक्षा का असर था, वहीं से तुम बिगड़ी थी", राव साहब के लिए प्रतीक्षा रत
आँखों से मैंने गेट की ओर देखा| "आप तो गार्गी
कॉलेज और दिल्ली के पीछे ही पड़े रहते हैं", पांच साल हो गए मुझे दिल्ली गए
हुए| पिछले महीने धीरज के बेटे की
मंगनी थी, उसमे भी नहीं गई| पता नहीं क्या सोचेगा वह?", वह भी बार-बार गर्दन मोड़ कर गेट
की ओर देख रही थी|
"तुम्हारे गार्गी कॉलेज से याद
आया, अपनी गार्गी कैसी ही है, कोई ख़त आया है उसका?", मैंने बातों को मोड़ते हुए कहा| "अरे हाँ, शनिवार को उसका ख़त आया था, मैं आपको देना भूल गई| सुभूति की तबियत थोड़ी ख़राब हो
गई थी| इसीलिए गुरुपूर्णिमा पर नहीं आ
पाई| मैंने जवाब लिख दिया है, उसे यह भी बता दिया है कि आपकी
तबियत बहुत ख़राब है| देखिये कब तक आती है....अरे ओ
अमन", बात को बीच में रोककर अमन को
आवाज़ देने लगी| "मेरी तबियत का बोली हो, तब तो वो भागी चली आएगी, उसके बाप को भी ख़बर कर दो| उसे गाँव से यहाँ आने में वक्त
लगेगा", मेरी आँखे फिर नम थी| "आपको क्या लगता है, आपकी तबियत ख़राब होगी और आपके
थिओ को पता नहीं चलेगा| ७ दिन पहले ही उसका खत आया था
वो और गार्गी की माँ दोनों आ रहे हैं", बेड से उतरते हुए बोली, 'रे अमन...अमन', बोलते हुए गेट की ओर जाने लगी| "क्या बात कर रही हो, साकेत आ रहा है?", मैंने थोड़ा अविश्वास दिखाते हुए
पूछा| "हाँ..आ रहा है बाबा आ रहा
है...आपका थिओ, .......भाई के बिना इनका प्राण भी कैसे
छुटेगा", बुदबुदाते हुए गेट पर चली गई| पैर मोड़ कर काफी देर तक बैठे
रहने की वजह से इस बार उसे चलने में ज्यादा तकलीफ हो रही थी| "रे अमन.....", दो-तीन बार उसने आवाज़ लगाई| कौव्वा अपनी जगह से उड़ गया था| 'साकेत आ रहा है', सोच कर मेरे भीतर गुदगुदी होने
लगी| “अच्छा सुनो, मैं सोच रहा था कि कितना सही
रहता यदि गार्गी अपने बेटे का नाम सुभूति की जगह ‘शेख़ सराय’ रख लेती”, मैं ज़ोर से हंसने लगा। हंसने
की वजह से पेट में तेज़ दर्द होने लगता है। दिव्या को पता न चल जाए इसलिए मैं दर्द
के बावजूद भी हंसता रहता हूँ। “आपको हंसी आ रही, याद है गार्गी को उसके दोस्त JNU में कितना चिढ़ाते थे- अपना नाम
गार्गी, बाप का नाम साकेत और माँ का नाम
प्रीत विहार।”, दरवाज़े के पास से दिव्या बोली।
“प्रीत विहार तो ज़्यादती थी, उसकी माँ का नाम प्रीती है...भद
तो तब होती जब उन्हें पता चलता कि उसके बड़े पापा का एक नाम ‘नेहरु’ भी है। फिर उसे सब नेहरु प्लेस
कहकर चिढ़ाते..हा..हा..हा”, मैं ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगता
हूँ। “शुक्र है आपके नेहरू नाम का
बहुत से लोगों पता नहीं है...नहीं तो सच में गार्गी आपसे बहुत लड़ती”, अमन शायद उसे आता हुआ दिख गया
था, वह दरवाज़े से नीचे उतरने लगी।
"कितनी देर से आवाज़ लगा रही हूँ तुम्हे, सुनता क्यों नहीं है
तू....", अमन को डांटते हुए बोली| "मैं सुराही आंटी को दादाजी के
बारे में बताने गया था", सफाई देते हुए
अमन बोला| "तू रॉकी के साथ मैदान में खेल
रहा था, और बोल रहा है कि सुराही आंटी
के पास गया था, झूठ बोलेगा तू..." दिव्या
ने उसे डांटा| "खेल तो मैं अभी रहा था, वहां से आने के बाद", गहरी सांस भरते हुए अमन ने अपनी
बात रखी| मैं अमन को देख तो नहीं सकता था, लेकिन उसकी आवाज़ से ऐसा लग रहा
था कि वह हांफ रहा है| "क्या बोली सुराही?", दिव्या ने पूछा| "राव अंकल जब बाजार से लौट कर आ
जाएँ, तो मुझे आकर बता देना, मैं पापा को लेकर आ उंगी", दिव्या के पीछे कमरे में घुसते
हुए अमन बोला| अमन के पीछे कूँ-कूँ करके पूँछ
हिलाता हुआ रॉकी खड़ा था| मास्टर उगवे रॉकी को अपने साथ
गुजरात से लाए थे| मतलब रॉकी अब पंद्रह साल का हो
गया है| "ग़जब की लड़की है सुराही भी, अब फिर से तुम इतने उपर जाओगे
उसे बताने के राव साहेब आ गये", बिना अमन को देखते हुए दिव्या
बोली| "मैं चला जाऊंगा", तिपाई पर पड़े कप्स को उठाते हुए
अमन बोला| "हाँ-हाँ तू क्यों नहीं
जाएगा...बहुत बड़ा पेटबहुक है ये लड़का सुराही कुछ-कुछ खाने को दे देती है, इस चक्कर में यह वहां जाने के
लिए बहाने ढूंढता रहता है..एक बार वहां जाना हो तो मुझे पन्द्रह बार सोचना पड़ता है, और यह लड़का दिन में पांच बार
वहां चला जाता है, पहाड़ चढ़ना न हुआ जैसे कोई खेल
हुआ", मुझे देखते हुए दिव्या बोली| "तुम्हे भी तो मैं कहता हूँ कि
इसे चॉकलेट दिया करो, लेकिन तुम्ही ज्यादा मीठा खाएगा
तो ये हो जाएगा, वो हो जाएगा..करती रहती हो, तो बेचारा क्या करे...सुराही चॉकलेट
देती है, तो वहां चला जाता है", अमन को देखते हुए मैंने बोला| वह दिव्या के पीछे खड़ा मुंह बना
रहा था, और मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था| "आप से तो कुछ कहना ही बेकार
है....सुनो कप्स को किचन में रख दो, फिर गोडाउन से लकड़िया लेकर
आओ...आग ठंडी हो रही है", कप लेकर जाते हुए
अमन से दिव्या बोली|
"लगता है राव साहब को किताब नहीं
मिली, इसलिए इतनी देर हो रही है| नहीं तो ६ घंटे में आमदी चार
बार रानीखेत से होकर आ जाए, ऐसे नहीं मास्टर उगवे इनको
बबूचक बुलाते थे। एक काम भी ये ठीक से नहीं करते हैं। उस दिन सोनिया बता रही थी एक
कप चाय बनाने में इनको बीस मिनट लगते हैं", खिड़की के ऊपर वाले पल्ले को बंद
करते हुए दिव्या बोली| नीचे का पल्ला उसने खुला रहने दिया
ताकि मैं देवदार को देख सकूँ।
मास्टर उगवे का
जिक्र सुन कर मैं बड़ा बेचैन हो गया| चार साल पहले, इसी कमरे में, इसी बेड पर, जिसपर अभी मैं लेटा हूँ, मास्टर उगवे ने देह त्यागा था| "मृत्यु जीवन से हज़ार गुणा
ज़्यादा सुंदर है मास्साहब, अगर हमने जीवन ठीक से जीया हो, और मैं जीवन को ठीक से जीकर मर
रहा हूँ। जल्दी आइएगा, मैं वहाँ इंतज़ार कर रहा होऊँगा
आपका, अकेले मेरा मन नहीं लगेगा वहाँ”, उगवे की आँखों में आंसू थे।
राव साहब मेरे
दाईं ओर खड़े थे और भक्तराज़ अपने व्हीलचेअर पर मेरे बाईं ओर बैठे थे। राव को
देखकर उगवे फुट-फुट कर रोने लगे थे। राव की आँखों से भी अनवरत आंसू बह रहे थे। “बूढ़ऊ, तुम कब तक व्हीलचेअर पर बैठे
रहोगे, सुराही भी तुमसे तंग आ गयी है
अब तो...”, रोना रोक कर उगवे ने भक्तराज़
से कहा। भक्तराज के सब्र का बांध भी टूट चुका था, वह भी रोये जा रहे थे। तभी एक
थाली हाथ में लिए सुराही अंदर आई। “थाली में ये क्या लेकर आई है?” उगवे ने पूछा। “आपके लिए प्याज़ और आलू के
पकौड़े बना कर लाई है”, भक्तराज ने कहा। मुँह में एक भी
दांत ना होने की वजह से भक्तराज हवा निकालते हुए बोलते थे। “वाह...अब आप चैन से देह छोड़ पाएँगे
जनाब”, राव साहब बोले।
मैं उगवे के बारे
में सोच ही रहा था कि अमन, “असीम दादा (राव साहब) आ गए, असीम दादा आ गये...”, चिल्लाता हुआ कमरे में घुसा।
उसके हाथों में लकड़ी का एक गट्ठर था। “राव साहब आ गये”, दिव्या मुझसे बोली। “हम्म...’ बोलकर मैं दरवाज़े को देखने
लगा। “कहाँ देखा तुमने उनको?” दिव्या ने अमन से पूछा। लकड़ी
लेने गोडाउन गया था, तो वहीं से नीचे पुल के पास
उनको ऊपर चढ़ते हुए देखा”, गट्ठर खोलकर लकड़ी आग में डालते
हुए अमन बोला। “फिर तो उन्हें आने में अभी 20 मिनट और लगेंगे, दमे की वजह से उन्हें ऊपर चढ़ने
में बड़ी तकलीफ़ होती है”, मैं अपने आप से बोला। “दमे की वजह से नहीं...नीचे
गुप्ता जी के यहाँ जो रोज़ सिगरेट पीने जाते हैं, उससे दम फूलता है उनका”, दिव्या मुँह ऐंठते हुए ख़ुद से
बोली। “अमन... तुम आग को छोड़ों, और ऊपर जाकर सुराही से कहो कि
वो भक्तराज जी को लेकर आए।” अमन जाने से कतरा रहा था। उसे
डर था कि अगर राव साहब के आने पर वह यहाँ मौजूद नहीं रहा, तो राव साहब उसके लिए जो चोकलेट
लेकर आएँगे उसे वह अभी नहीं मिलेगा...। दिव्या ने उसके मन को भाँप लिया, “वो जो कुछ भी तुम्हारे लिए लेकर
आएँगे, मैं नहीं रखूँगी..और भूलो मत
सुराही भी तुम्हें कुछ न कुछ ज़रूर देगी।” आश्वासन मिलने पर अमन लथराते
हुए बाहर निकला..उसे दिव्या की बातों पर भरोसा नहीं था। “अच्छा सुनो, पता है मैं क्या सोचता था?”, अमन के जाने के बाद मैंने
दिव्या से कहा। दिव्या अंगीठी की आग को जगा रही थी। “क्या सोचते थे?”, चिंगारी उड़ाते हुए वह बोली।
“सुराही अपनी गार्गी से कुछ ही
महीने छोटी है। जब उसका जन्म हुआ तो मैंने सोचा काश ये लड़का होती, तो गार्गी की शादी इसी से तय कर
देता। हा..हा.हा”, मेरे साथ दिव्या भी हंसने लगी।
आग के पास ज़ोर से हंसने की वजह से थोड़ी राख उसके मुँह में चली गई।“बताओ तब गार्गी ठीक से तीन
महीने की भी नहीं थी, और आप उसकी शादी की बात सोच रहे
थे”, आग के पास से उठते हुए दिव्या बोली।
बिना सहारे के उठने में उसे बड़ी दिक़्क़त हो रही थी। लगता है ठंड की वजह से दर्द
बढ़ गया है। हंसने के बाद मैं फिर से पेट में खिंचाव महसूस कर रहा था।
“सोनिया’ अहमदाबाद से कब लौट रही
है?” मैंने दिव्या से पूछा। “राव साहब तो कह रहे थे कि वो कल
सुबह यहाँ पहुँच जाएगी”, ओवरकोट पर गिरे राख को झाड़ते
हुए दिव्या बोली। तिपाई खींच कर मेरे सिर के पास बैठ गई, और फिर मेरे दाहिए हाथ को अपने
दोनों हथेलियों के बीच रखकर रोने लगी,”क्या तुम सच में मर जाओगे.....?” अपने सिर को उसने हाथों पर रख
दिया। उसे रोता देख मैं भी रोने लगा। रोते-रोते एक शेर याद आ गया, “अपने मरने का ग़म नहीं, हाय तुमसे जुदाई होती है”, 40 साल पहले यह शेर लोगों को बहुत सुनाया
करता था। लेकिन मर्म आज समझ आया।
राव साहब के कदमो
की आहट सुनकर दिव्या सिर उठा कर बैठ गई| जूते उतार कर राव साहब अंदर आए| उनकी टोपी
पर पानी की छोटी-छोटी बूंदें जमी हुई थी| वे तेज़-तेज़ सांस ले रहे थे| उनके हाथों
में दो थैली थी, एक उन्होंने अंगीठी के पास कुर्सी पर रख दिया, और दूसरा दिव्या को
थमा दिया| और ख़ुद अंगीठी में हाथ सेकने लगे| अंगीठी के पास बैठे इस बूढ़े राव साहब
को देखकर मेरे लिए यकीन करना मुश्किल था कि यह वही राव साहब हैं, जिनके साथ 45 साल पहले अहमदाबाद में मैं
कॉफ़ी पिया करता था| कितना कुछ बदल गया इस ४५ साल में| राव साहब सिंगल से डबल हो
गए, मास्टर उगवे चले गए| बीस साल पहेल हम आठ लोग (मैं, दिव्या, रावसाहब, सोनिया,
मास्टर उगवे, भक्तराज उनकी पत्नी, और सुराही) यहाँ, पहाड़ पर, रहने आए थे, आज बस ६
बच गए हैं| मैं जाने ही वाला हूँ, मुझे नहीं लगता दिव्या मेरे बाद यहाँ रहेगी|
भक्त राज भी ज्यादा-से-ज्यादा एक-दो महीने और टिकेंगे| राव साहब के अकेले हो जाने
का मुझे बड़ा दुःख हो रहा है| पता नहीं मेरे बाद क्या करेगा ये आदमी? सोनिया संभाल
लेगी, समझदार लड़की है|
सुबह के चार बज रहे हैं। आधा
घंटा हो चुका है मुझे जगे हुए। दिव्या के उठने का वेट कर रहा हूँ। 8 बजे मैं शरीर छोड़ूँगा। दो बजे तक दिव्या जगी ही हुई
थी।रात के बारह बजे तक साकेत, राव साहब, और भक्तराज यहीं कमरे ही थे। बारदो शुरू करने से पहले
हमने बड़ी मुश्किल से सुराही और गार्गी को यहाँ से भेजा। दिव्या को जगाने से पहले
मैं एकबार (या कह लें कि अंतिम बार) अष्ट्रावक्र गीता पढ़ना चाहता हूँ। मंगलवार को
राव साहब यही किताब ख़रीदने रानीखेत गये थे। ‘Importance of living’ और अष्ट्रावक्र गीता को मैं अपने साथ ले जाऊँगा। इन
दो किताबों के बिना स्वर्ग भी मेरे लिये नर्क हो जाएगा। और अगर ये दोनों मेरे साथ
है, तो फिर नर्क कहीं है ही नहीं, मैं जहाँ भी होऊँगा, स्वर्ग वहीं होगा।
किताब पढ़ते-पढ़ते कब ६ बज गए
पता ही नहीं चला। दिव्या अभी-अभी उठी है। “आज पूरी खिड़की खोल दो, और अंगीठी जलाने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं काफ़ी गर्मी
महसूस कर रहा हूँ।“ नीम-जगी दिव्या से मैंने कहा| वह बिना कुछ बोले बेड से उठ कर किचन में कॉफ़ी
बनाने चली गई|
इस वक्त सुबह के ७ बज रहे हैं, कमरे में सारे लोग
मौजूद हैं| मैं बेड पर लेटा हूँ| कमरे की सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल दिए गए हैं|
दिव्या मेरे पैताने बैठी हुई हैं, दरवाज़े से आती हुई सूरज की लाल रौशनी उसके चेहरे
पर पड़ रही है| बाल चांदी से चमक रहे हैं| दिव्या के बगल में साकेत बैठा हुआ है|
उम्र में साकेत मुझसे सिर्फ तीन साल छोटा है, लेकिन इस वक़्त दस साल छोटा लग रहा
है| प्रीती और गार्गी बेड के पीछे साकेत के पास ही खड़े हैं| राव साहब मेरे सिर के
पास बैठे हैं, भक्त राज अपनी व्हीलचेअर पर बैठे हैं, सुराही उनके पीछे खडी है| कल
अमन के माता-पिता मुझसे मिलने आए थे, अमन उन्ही के साथ कुछ दिनों के लिए अपने गाँव
चला गया है| रॉकी अंगीठी के पास उदास बैठा, उसे शायद इस बात का इल्म हो गया है आज
उसका दूसरा मालिक भी उसे छोड़ कर जा रहा है|
इशारे से मैंने गार्गी और सुराही को अपने पास बुलाया|
दोनों राव साहब के बगल में आकर खड़ी हो गयी| दोनों की आँखों में आंसू है| अपने बगल
से अष्ट्रावक्र गीता की दो कॉपी
उठा कर मैं एक-एक दोनों को देता हूँ| “मुझे नदी के पास ले चलिए”, मैंने राव साहब
से कहा|
मास्टर उगवे जब जिन्दा थे, और
भक्तराज ने पेड़ से गिर कर अपना पैर नहीं तोड़ा था, तब हम चारों (भक्तराज, उगवे, राव
और मैं) रोज़ यहाँ नहाने आते थे| जब मैं पहली बार यहाँ आया था तभी तय किया था कि
अगर अस्तित्व ने चाहा तो अंतिम साँस यहीं लूँगा| नदी की कल-कल नाद और पंछियों की
चहचहाहट के सिवाय यहाँ और कोई आवाज़ नहीं है| राव साहब और साकेत मेरे लिए चिता
तैयार कर रहे हैं| शून्य आँखों से भक्तराज पानी को देख रहे हैं| सूराही उनके चेअर
को संभाले हुए है| दिव्या मेरे बगल में बैठी है, मैं करवट लेकर नदी को
बहता हुआ देख रहा हूँ| “पापा गिर गए.....” अचानक से सूराही चीखी| “मुझे पता था, यह
आदमी मुझसे पहले जाएगा”, मैंने दिव्या से कहा| राव साहब दौड़ कर उनको उठाने गए|
अब एक की जगह दो चिताएं तैयार हो रही थी| साकेत
लकड़ियाँ ला-लाकर राव साहब को दे रहा था| साकेत को देख कर मुझे रामचरित्रमानस का एक
दोहा याद आ गया, “सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं
जाहिं जग बारहिं बारा॥ अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता” चिता
तैयार हो जाने के बाद सब लोग मेरे पास आकर बैठ गए| भक्तराज को भी मेरे बगल में
लिटा दिया गया| मैं अब भी पानी के बहाव को देख रहा था| प्रवाह में दौड़ते पत्थरों
में मुझे वो सारे चेहरे दिख रहे थे, जिनसे जीवन काल में कभी मिलना हुआ था| थोड़ी
देर प्रवाह को देखने के बाद मैंने अपनी आँखें बंद कर ली| और दिव्या के दाहिने हाथ
को अपने दोनों हथेली के बीच रखा| मन-ही-मन माँ पिता जी को प्रणाम किया, दादाजी से
आशीर्वाद माँगा, खानदान के सभी लोगों को एक साथ प्रणाम किया, गोविन्द और निकेश को
याद करके आँखे गीली हो गई, पवन सर को प्रणाम किया और रोया, आदित्य से विदा मांगी| फिर आँखें खोल कर एक बार सबको देखा| हाथ जोड़ कर सबको
प्रणाम किया| गहरी सांस लेते हुए एक बार धीरे से ओशो बोला, और फिर हमेशा के लिए
शून्य में विलीन हो गया...
The
End..
Ikkyu Knesho Tzu (Between ‘Yesterday’-‘Today’) जन्म थिति-कल, मृत्यु- आज..!
किताब का नाम- अष्ट्रावक्र गीता, Importance of living.. लेखक- अज्ञात, लिन
युतांग